Saturday 17 September 2011

विप्लव


यूँ हुआ कुछ एक दिन ऐसा,
की जाग उठी आवाज़े.
की जाग उठे वो मुर्दा सपने.
की जाग उठी वो बंद चीखें .

यूँ हुआ कुछ एक दिन ऐसा, 
की जाग उठी वो कुंठित इच्छा.
की जाग उठे वो घाव हरे.
की जाग उठे वो कोरी नींदे.

यूँ हुआ कुछ एक दिन ऐसा,
की जाग उठे वो गीत पुराने.
की जाग उठे वो कौमी सपने,
                    बंद पड़े किताबों में.
की जाग उठे वो सोये योद्धा ,
                     मदमस्त पड़े मधुशालो में.

यूँ हुआ कुछ एक दिन ऐसा,
की जाग उठे वो बिखरे चश्मे,
              धूल पड़ी थी जिनमे.
की जाग उठे वो फौलादी बाहें,
               जंग लगी थी जिनमे.
की जाग उठे वो वीर सारे,
                इश्क समां गया था जिनमे.

यूँ हुआ कुछ एक दिन ऐसा,
की जाग उठी वो तंग गलियां,
                 बंद पड़ी थी सदियों से.
की जाग उठे वो चौराहे भूले,
                  सुनसान पड़े थे सदियों से.

बस हुआ कुछ एक दिन ऐसा,
की जाग उठा वो फौजी हमारे खून में.
की जाग उठा वो फौजी हमारे खून में.

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